कोरोनावायरस के चलते लाखों मजदूर देश के विभिन्न शहरों जैसे दिल्ली, मुंबई, गुजरात से गांवों की ओर पलायन कर चुके हैं। अब खबर है कि 15 अप्रैल से यातायात सेवा शुरू होने के बाद बड़े पैमाने पर मजदूर पलायन के लिए तैयार हैं। अगर ऐसा होता है तो सब कुछ शुरू होने के बाद महानगरों में मजदूरों की बड़ी किल्लत रोजगारों के लिए समस्या खड़ी कर सकती है।
दरअसल कामगारों का पलायन तो 21 मार्च के जनता कर्फ्यू के बाद ही हो चुका था। उस समय 21 से 25 मार्च के बीच मुंबई में लोकमान्य तिलक टर्मिनस और सीएसटी जैसे स्टेशनों पर उत्तर भारत की ओर जानेवाले यात्रियों का हुजूम उमड़ पड़ा था। लोग एक दूसरे के ऊपर चढ़कर ट्रेनों में सीटों के लिए मारामारी कर रहे थे। यह वह कामगार थे, जो मुख्य रूप से दूध की आपूर्ति, ग्रोसरी स्टोर, सब्जियों की बिक्री, सिगरेट और बीड़ी के कारखानों और फलों के कारोबार में शामिल थे।

देश में माइग्रेंट कामगारों की बात की जाए तो इसमें 41 प्रतिशत वाहन चालक हैं, 32 प्रतिशत डिलीवरी के क्षेत्र में हैं, 9 प्रतिशत सुरक्षा के क्षेत्र में हैं, 9 प्रतिशत हाउसकीपिंग स्टॉफ हैं और 9 प्रतिशत अन्य हैं। इसमें से 92 प्रतिशत पुरुष और 9 प्रतिशत महिला कामगार हैं। आंकड़े बताते हैं कि इसमें से 15 प्रतिशत की मासिक आय 10 हजार से 15 हजार रुपये, 35 प्रतिशत की 15 से 20 हजार, 20 प्रतिशत की 20 से 25 हजार 10 प्रतिशत की 25 से 30 हजार और 14 प्रतिशत की 30 हजार से ज्यादा मासिक आय है। इसमें सबसे ज्यादा 21 से 25 साल के कामगार हैं जिनकी संख्या 35 प्रतिशत है। जबकि 30 प्रतिशत की उम्र 26-30 साल है।
देश में उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओड़िसा, पंजाब, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, हरियाणा से सबसे ज्यादा लोग दूसरे शहरों में जहां जाते हैं उसमें प्रमुख रूप से दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद और अन्य इलाके हैं। मुंबई में करीबन एक करोड़ माइग्रेंट कामगार हैं जबकि दिल्ली में 63 प्रतिशत लोग हैं। दिल्ली में अकेले उत्तर प्रदेश से ही 28 लाख लोग नौकरी के लिए जाते हैं। हालांकि यहां गाजियाबाद, नोएडा जैसे इलाके भी दिल्ली में माने जाते हैं, जबकि यह उत्तर प्रदेश में आते हैं। आंकड़े बताते हैं कि कुल माइग्रेंट में से अकेले उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान का हिस्सा 46 फीसदी है।
सरकारी कंपनी एमएमआरडीए के आयुक्त आर.ए. राजीव कहते हैं कि मुंबई महानगर प्रदेश विकास प्राधिकरण (एमएमआरडीए) पलायन रोकने के लिए करीबन 11,000 मजदूरों का जिम्मा उठाने का फैसला लिया है और उन्हें भोजन तथा चिकित्सा मुहैया कराएगा। उन्होंने सभी ठेकेदारों को यह आदेश दिया है कि वे उन मजदूरों का खर्च उठाएं और बाद में एमएमआरडीए उन्हें पैसा देगा। आर.ए. राजीव का कहना है कि उनके 11,000 मजदूर कहीं पलायन नहीं कर रहे हैं। हालांकि निजी क्षेत्र में काम करनेवालों की राय इससे अलग है।

मजदूरों में डर का माहौल : ओमप्रकाश पांडेय
ओमप्रकाश इंफ्रा प्राइवेट लिमिटेड के ओमप्रकाश पांडेय कहते हैं कि जिस तरह से मजदूरों में डर का माहौल है, ऐसे में अभी से काफी सारे मजदूर 15 अप्रैल से ट्रेन शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं। हालांकि, 15 अप्रैल के ट्रेनों की टिकट पहले से ही वेटिंग लिस्ट में है, बावजूद इसके यह मजदूर किसी तरह से महानगरों से गांव की ओर पलायन करने को बेताब हैं। वे बताते हैं कि रियल्टी सेक्टर के लिए यह बड़ा खतरा है क्योंकि काफी बड़े पैमाने पर यह मजदूर असंगठित क्षेत्र के रूप में काम करते हैं। बिल्डर एसोसिशएन ऑफ इंडिया के आनंद गुप्ता कहते हैं कि निर्माण प्रोजेक्ट में मजदूरों की कमी होना तय है। इस वजह से भी प्रोजेक्टों में देरी होना भी लाजिमी है और उसके बाद इनकी लागत भी बढ़ जाएगी।
मजदूरों के जाने से कंपनियां बंद होंगी : राहुल मेहता
क्लोथिंग मैन्यूफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के राहुल मेहता कहते हैं कि मजदूरों का वापस आना बहुत बड़ी दिक्कतें हैं। ज्यादातर मजदूर जो चले गए हैं वे तुरंत लौटना नहीं चाहते हैं। चूंकि अप्रैल से मई जून तक वैसे ही मजदूर गांव जाते हैं, इसलिए ऐसे मामले में अब वे लोग आने की बजाय गांव में ही रहना चाहेंगे। इसलिए अधिकतर मजदूर जुलाई के बाद ही लौटने की कोशिश करेंगे और जब वे वापस आएंगे तब तक कंपनियों को अपने कारोबार बंद रखने होंगे। इसका असर यह होगा कि कंपनियों को कर्मचारियों की संख्या में कटौती तो करनी ही होगी और साथ ही अन्य मजदूर भी इस दौरान निकल जाएं। इसलिए यह स्थिति लंबे समय तक कारोबारियों को प्रभावित करेंगी।

सुविधाएं मिलने की बात का मजदूरों पर असर नहीं
बता दें कि शहरी क्षेत्रों में ज्यादातर असंगठित मजदूर होते हैं और यह इस तरह की स्थिति में डर के माहौल में जीने की बजाय गांव का रास्ता पकड़ लेते हैं। ये मजदूर रोज कमाते हैं और रोज खाते हैं। हालांकि सरकारें लगातार इन मजदूरों को यह भरोसा दिलाती रही हैं कि उनको सभी सुविधाएं मिलेंगी, लेकिन इन मजदूरों पर इसका असर नहीं हो रहा है। एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली में ही स्किल्ड, सेमी स्किल्ड और गैर स्किल्ड मजदूरों की संख्या 55 लाख से ज्यादा है जबकि इसी स्तर पर मुंबई में भी इनकी संख्या है। यह मजदूर निर्माण, कपड़े, बीड़ी, तंबाकू के कारखानों आदि में काम करते हैं।
ओमप्रकाश पांडे कहते हैं कि भरोसा दिलाना अलग है और उसे करना अलग है। जब सब कुछ लॉक डाउन है सामाजिक दूरी है तो कैसे कोई किसी को भरोसा दिला सकता है। स्थिति इतनी नाजुक है कि मजदूरों को रोकना संभव नहीं है। देश के प्रमुख शहरों जैसे मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर, भीलवाड़ा, असम, कोलकाता आदि इलाकों में उत्तर भारत से बड़े पैमाने पर मजदूर रहते हैं और अपनी रोजी रोटी कमाते हैं। लेकिन इस तरह की पहली बार बंदी ने उनके जीवन यापन पर बहुत ही बुरे तरीके से वार किया है।
गोदरेज समूह ने अपने कर्मचारियों को एक पत्र जारी कर रहा है कि वह सभी 8 शहरों में गोदरेज प्रापर्टी में लगे कामगारों को सुरक्षा और सुविधा मुहैया कराएगा और सेनिटाइज भी कराएगा। साथ ही हाइजेनिक खानों की आपूर्ति करेगा। इसके अलावा आइसोलेशन सुविधा भी कामगारों के लिए मुहैया कराएगा। शापुर पालोनजी ने भी कर्मचारियों के लिए सभी सुविधाएं मुहैया कराई है ताकि वे वापस न जाएं। इस समूह के भारत में 430 साइटों पर 45,000 कर्मचारी हैं।
यही नहीं, मुंबई जैसे शहरों में ऑटो रिक्शा, ओला, टैक्सी या फिर ऐसे कारोबार करनेवाले जो कर्ज लेकर उसे ईएमआई भरकर कारोबार कर रहे थे, वह बुरी तरह प्रभावित हैं। ऐसे ओला और टैक्सी चालकों का कहना है कि ईएमआई में भले राहत दी गई है, लेकिन उसका ब्याज तो भरना पड़ेगा। ऐसे में मार्च, अप्रैल और मई तक की तीन किश्तें तो टूटना तय है। फिर जून से अगर सब कुछ सही हुआ तो इस समय जो कर्ज लेकर जीवन यापन कर रहे हैं, उस कर्ज का भुगतान करना होगा। ऐसे में इन कामगारों यह नहीं लगता है कि अगले कम से कम 4 -5 महीनों तक उनके लिए शहरों में टिके रहना संभव होगा।